Wednesday 29 June 2011

THE GREAT HINDI WRITER PREMCHAND

प्रेमचंद
धनपत राय श्रीवास्तव
                                                                                                                               
प्रेमचंद एक तैलचित्र
उपनाम:     प्रेमचंद
जन्म:     ३१ जुलाई, १८८०
ग्राम लमही, वाराणसी, उत्तर प्रदेश, भारत
मृत्यु:     ८ अक्तूबर, १९३६
वाराणसी, उत्तर प्रदेश, भारत
कार्यक्षेत्र:     अध्यापक, लेखक, पत्रकार
राष्ट्रीयता:     भारतीय
भाषा:     हिन्दी
काल:     आधुनिक काल
विधा:     कहानी और उपन्यास
विषय:     सामाजिक
साहित्यिक
आन्दोलन:     आदर्शोन्मुख यथार्थवाद
प्रगतिशील लेखक आन्दोलन
प्रमुख कृति(याँ):     गोदान उपन्यास १९३६
इनसे प्रभावित:     रेणु, श्रीनाथ सिंह, सुदर्शन, यशपाल
हस्ताक्षर:    

प्रेमचंद (३१ जुलाई, १८८० - ८ अक्तूबर १९३६) के उपनाम से लिखने वाले धनपत राय श्रीवास्तव[१] हिन्दी और उर्दू के महानतम भारतीय लेखकों में से एक हैं। उन्हें मुंशी प्रेमचंद व नवाब राय नाम से भी जाना जाता है और उपन्यास सम्राट[२] के नाम से सम्मानित किया जाता है। इस नाम से उन्हें सर्वप्रथम बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने संबोधित किया था।[३] प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया जिस पर पूरी शती का साहित्य आगे चल सका। इसने आने वाली एक पूरी पीढ़ी को गहराई तक प्रभावित किया और साहित्य की यथार्थवादी परंपरा की नीव रखी। उनका लेखन हिन्दी साहित्य एक ऐसी विरासत है जिसके बिना हिन्दी का विकास संभव ही नहीं था। वे एक सफल लेखक, देशभक्त नागरिक, कुशल वक्ता, ज़िम्मेदार संपादक और संवेदनशील रचनाकार थे। बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में जब हिन्दी में काम करने की तकनीकी सुविधाएँ नहीं थीं इतना काम करने वाला लेखक उनके सिवा कोई दूसरा नहीं हुआ। प्रेमचंद के बाद जिन लोगों ने साहित्‍य को सामाजिक सरोकारों और प्रगतिशील मूल्‍यों के साथ आगे बढ़ाने का काम किया, उनके साथ प्रेमचंद की दी हुई विरासत और परंपरा ही काम कर रही थी। बाद की तमाम पीढ़ियों, जिसमें यशपाल से लेकर मुक्तिबोध तक शामिल हैं, को प्रेमचंद के रचना-कर्म ने दिशा प्रदान की।

जीवन परिचय

प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी के निकट लमही गाँव में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी था तथा पिता मुंशी अजायबराय लमही में डाकमुंशी थे।[४] उनकी शिक्षा का आरंभ उर्दू, फारसी से हुआ और जीवन यापन का अध्यापन से। १८९८ में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी १९१० में इंटर पास किया और १९१९ में बी.ए.[५] पास करने के बाद स्कूलों के डिप्टी सब-इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में पिता का देहान्त हो जाने के कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा।[६] उनका पहला विवाह उन दिनों की परंपरा के अनुसार पंद्रह साल की उम्र में हुआ जो सफल नहीं रहा। वे आर्य समाज से प्रभावित रहे[७], जो उस समय का बहुत बड़ा धार्मिक और सामाजिक आंदोलन था। उन्होंने विधवा-विवाह का समर्थन किया और १९०६ में दूसरा विवाह अपनी प्रगतिशील परंपरा के अनुरूप बाल-विधवा शिवरानी देवी से किया।[८] उनकी तीन संताने हुईं- श्रीपत राय, अमृतराय और कमला देवी श्रीवास्तव। १९१० में उनकी रचना सोजे-वतन (राष्ट्र का विलाप) के लिए हमीरपुर के जिला कलेक्टर ने तलब किया और उन पर जनता को भड़काने का आरोप लगाया। सोजे-वतन की सभी प्रतियां जब्त कर नष्ट कर दी गई। कलेक्टर ने नवाबराय को हिदायत दी कि अब वे कुछ भी नहीं लिखेंगे, यदि लिखा तो जेल भेज दिया जाएगा। इस समय तक प्रेमचंद ,धनपत राय नाम से लिखते थे। उर्दू में प्रकाशित होने वाली ज़माना पत्रिका के सम्पादक मुंशी दयानारायण निगम ने उन्हें प्रेमचंद नाम से लिखने की सलाह दी। इसके बाद वे प्रेमचन्द के नाम से लिखने लगे। जीवन के अंतिम दिनों में वे गंभीर रुप से बीमार पड़े। उनका उपन्यास मंगलसूत्र पूरा नहीं हो सका और लंबी बीमारी के बाद ८ अक्टूबर १९३६ को उनका निधन हो गया।
कार्यक्षेत्र

प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था[९] पर उनकी पहली हिन्दी कहानी सरस्वती पत्रिका के दिसंबर अंक में १९१५ में सौत[१०][११] नाम से प्रकाशित हुई और १९३६ में अंतिम कहानी कफन[१२] नाम से। बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं।[१३] उनसे पहले हिंदी में काल्पनिक, एय्यारी और पौराणिक धार्मिक रचनाएं ही की जाती थी। प्रेमचंद ने हिंदी में यथार्थवाद की शुरूआत की। " भारतीय साहित्य का बहुत सा विमर्श जो बाद में प्रमुखता से उभरा चाहे वह दलित साहित्य हो या नारी साहित्य उसकी जड़ें कहीं गहरे प्रेमचंद के साहित्य में दिखाई देती हैं।" [१४] अपूर्ण उपन्यास असरारे मआबिद के बाद देशभक्ति से परिपूर्ण कथाओं का संग्रह सोज़े-वतन उनकी दूसरी कृति थी, जो १९०८ में प्रकाशित हुई। इसपर अँग्रेज़ी सरकार की रोक और चेतावनी के कारण उन्हें नाम बदलकर लिखना पड़ा। प्रेमचंद नाम से उनकी पहली कहानी बड़े घर की बेटी ज़माना पत्रिका के दिसंबर १९१० के अंक में प्रकाशित हुई। मरणोपरांत उनकी कहानियाँ मानसरोवर के कई खंडों में प्रकाशित हुई। उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द का कहना था कि साहित्यकार देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है। यह बात उनके साहित्य में उजागर हुई है। १९२१ में उन्होंने महात्मा गांधी के आह्वान पर अपनी नौकरी छोड़ दी। कुछ महीने मर्यादा पत्रिका का संपादन भार संभाला, छे साल तक माधुरी नामक पत्रिका का संपादन किया, १९३० में बनारस से अपना मासिक पत्र हंस शुरू किया और १९३२ के आरंभ में जागरण नामक एक साप्ताहिक और निकाला। उन्होंने लखनऊ में १९३६ में अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन की अध्यक्षता की। उन्होंने मोहन दयाराम भवनानी की अजंता सिनेटोन कंपनी[१५] में कहानी-लेखक की नौकरी भी की। १९३४ में प्रदर्शित मजदूर[१६] नामक फिल्म की कथा लिखी और कंट्रेक्ट की साल भर की अवधि पूरी किये बिना ही दो महीने का वेतन छोड़कर बनारस भाग आये क्योंकि बंबई (आधुनिक मुंबई) का और उससे भी ज़्यादा वहाँ की फिल्मी दुनिया का हवा-पानी उन्हें रास नहीं आया। प्रेमचंद ने करीब तीन सौ कहानियाँ, कई उपन्यास और कई लेख लिखे। उन्होंने कुछ नाटक भी लिखे और कुछ अनुवाद कार्य भी किया। प्रेमचंद के कई साहित्यिक कृतियों का अंग्रेज़ी, रूसी, जर्मन सहित अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। गोदान उनकी कालजयी रचना है. कफन उनकी अंतिम कहानी मानी जाती है। तैंतीस वर्षों के रचनात्मक जीवन में वे साहित्य की ऐसी विरासत सौप गए जो गुणों की दृष्टि से अमूल्य है और आकार की दृष्टि से असीमित।
कृतियाँ

प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि, विभिन्न साहित्य रूपों में, अभिव्यक्त हुई। वह बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। उन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की किन्तु प्रमुख रूप से वह कथाकार हैं। उन्हें अपने जीवन काल में ही ‘उपन्यास सम्राट’ की पदवी मिल गयी थी। उन्होंने कुल १५ उपन्यास, ३०० से कुछ अधिक कहानियाँ, ३ नाटक, १० अनुवाद, ७ बाल-पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की लेकिन जो यश और प्रतिष्ठा उन्हें उपन्यास और कहानियों से प्राप्त हुई, वह अन्य विधाओं से प्राप्त न हो सकी। यह स्थिति हिन्दी और उर्दू भाषा दोनों में समान रूप से दिखायी देती है। उन्होंने ‘रंगभूमि’ तक के सभी उपन्यास पहले उर्दू भाषा में लिखे थे और कायाकल्प से लेकर अपूर्ण उपन्यास ‘मंगलसूत्र’ तक सभी उपन्यास मूलतः हिन्दी में लिखे। प्रेमचन्द कथा-साहित्य में उनके उपन्याकार का आरम्भ पहले होता है। उनका पहला उर्दू उपन्यास (अपूर्ण) ‘असरारे मआबिद उर्फ़ देवस्थान रहस्य’ उर्दू साप्ताहिक ‘'आवाज-ए-खल्क़'’ में ८ अक्तूबर, १९०३ से १ फरवरी, १९०५ तक धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ। उनकी पहली उर्दू कहानी दुनिया का सबसे अनमोल रतन कानपुर से प्रकाशित होने वाली ज़माना नामक पत्रिका में १९०८ में छपी। उनके कुल १५ उपन्यास है, जिनमें २ अपूर्ण है। बाद में इन्हें अनूदित या रूपान्तरित किया गया। प्रेमचन्द की मृत्यु के बाद भी उनकी कहानियों के कई सम्पादित संस्करण निकले जिनमें कफन और शेष रचनाएँ १९३७ में तथा नारी जीवन की कहानियाँ १९३८ में बनारस से प्रकाशित हुए। इसके बाद प्रेमचंद की ऐतिहासिक कहानियाँ तथा प्रेमचंद की प्रेम संबंधी कहानियाँ भी काफी लोकप्रिय साबित हुईं। नीचे उनकी कृतियों की विस्तृत सूची है।
समालोचना
मुख्य लेख : प्रेमचंद के साहित्य की विशेषताएँ

प्रेमचन्द उर्दू का संस्कार लेकर हिन्दी में आए थे और हिन्दी के महान लेखक बने। हिन्दी को अपना खास मुहावरा ऑर खुलापन दिया। कहानी और उपन्यास दोनो में युगान्तरकारी परिवर्तन पैदा किए। उन्होने साहित्य में सामयिकता प्रबल आग्रह स्थापित किया। आम आदमी को उन्होंने अपनी रचनाओं का विषय बनाया और उसकी समस्याओं पर खुलकर कलम चलाते हुए उन्हें साहित्य के नायकों के पद पर आसीन किया। प्रेमचंद से पहले हिंदी साहित्य राजा-रानी के किस्सों, रहस्य-रोमांच में उलझा हुआ था। प्रेमचंद ने साहित्य को सच्चाई के धरातल पर उतारा। उन्होंने जीवन और कालखंड की सच्चाई को पन्ने पर उतारा। वे सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, जमींदारी, कर्जखोरी, गरीबी, उपनिवेशवाद पर आजीवन लिखते रहे। प्रेमचन्द की ज्यादातर रचनाएं उनकी ही गरीबी और दैन्यता की कहानी कहती है। ये भी गलत नहीं है कि वे आम भारतीय के रचनाकार थे। उनकी रचनाओं में वे नायक हुए, जिसे भारतीय समाज अछूत और घृणित समझा था. उन्होंने सरल, सहज और आम बोल-चाल की भाषा का उपयोग किया और अपने प्रगतिशील विचारों को दृढ़ता से तर्क देते हुए समाज के सामने प्रस्तुत किया। १९३६ में प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने कहा कि लेखक स्वभाव से प्रगतिशील होता है और जो ऐसा नहीं है वह लेखक नहीं है। प्रेमचंद हिन्दी साहित्य के युग प्रवर्तक हैं। उन्होंने हिन्दी कहानी में आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की एक नई परंपरी शुरू की।
मुंशी के विषय में विवाद

प्रेमचंद को प्रायः "मुंशी प्रेमचंद" के नाम से जाना जाता है। प्रेमचंद के नाम के साथ 'मुंशी' कब और कैसे जुड़ गया? इस विषय में अधिकांश लोग यही मान लेते हैं कि प्रारम्भ में प्रेमचंद अध्यापक रहे। अध्यापकों को प्राय: उस समय मुंशी जी कहा जाता था। इसके अतिरिक्त कायस्थों के नाम के पहले सम्मान स्वरूप 'मुंशी' शब्द लगाने की परम्परा रही है। संभवत: प्रेमचंद जी के नाम के साथ मुंशी शब्द जुड़कर रूढ़ हो गया। प्रोफेसर शुकदेव सिंह के अनुसार प्रेमचंद जी ने अपने नाम के आगे 'मुंशी' शब्द का प्रयोग स्वयं कभी नहीं किया। उनका यह भी मानना है कि मुंशी शब्द सम्मान सूचक है, जिसे प्रेमचंद के प्रशंसकों ने कभी लगा दिया होगा। यह तथ्य अनुमान पर आधारित है। लेकिन प्रेमचंद के नाम के साथ मुंशी विशेषण जुड़ने का प्रामाणिक कारण यह है कि 'हंस' नामक पत्र प्रेमचंद एवं 'कन्हैयालाल मुंशी' के सह संपादन मे निकलता था। जिसकी कुछ प्रतियों पर कन्हैयालाल मुंशी का पूरा नाम न छपकर मात्र 'मुंशी' छपा रहता था साथ ही प्रेमचंद का नाम इस प्रकार छपा होता था- (हंस की प्रतियों पर देखा जा सकता है)।
संपादक
मुंशी, प्रेमचंद
'हंस के संपादक प्रेमचंद तथा कन्हैयालाल मुंशी थे। परन्तु कालांतर में पाठकों ने 'मुंशी' तथा 'प्रेमचंद' को एक समझ लिया और 'प्रेमचंद'- 'मुंशी प्रेमचंद' बन गए। यह स्वाभाविक भी है। सामान्य पाठक प्राय: लेखक की कृतियों को पढ़ता है, नाम की सूक्ष्मता को नहीं देखा करता। आज प्रेमचंद का मुंशी अलंकरण इतना रूढ़ हो गया है कि मात्र मुंशी से ही प्रेमचंद का बोध हो जाता है तथा 'मुंशी' न कहने से प्रेमचंद का नाम अधूरा-अधूरा सा लगता है।[३]
विरासत

प्रेमचंद ने अपनी कला के शिखर पर पहुँचने के लिए अनेक प्रयोग किए। जिस युग में प्रेमचंद ने कलम उठाई थी, उस समय उनके पीछे ऐसी कोई ठोस विरासत नहीं थी और न ही विचार और प्रगतिशीलता का कोई मॉडल ही उनके सामने था सिवाय बांग्ला साहित्य के। उस समय बंकिम बाबू थे, शरतचंद्र थे और इसके अलावा टॉलस्टॉय जैसे रुसी साहित्यकार थे। लेकिन होते-होते उन्होंने गोदान जैसे कालजयी उपन्यास की रचना की जो कि एक आधुनिक क्लासिक माना जाता है। उन्होंने चीजों को खुद गढ़ा और खुद आकार दिया। जब भारत का स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था तब उन्होंने कथा साहित्य द्वारा हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं को जो अभिव्यक्ति दी उसने सियासी सरगर्मी को, जोश को और आंदोलन को सभी को उभारा और उसे ताक़तवर बनाया और इससे उनका लेखन भी ताक़तवर होता गया।[१७] प्रेमचंद इस अर्थ में निश्चित रुप से हिंदी के पहले प्रगतिशील लेखक कहे जा सकते हैं। १९३६ में उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन को सभापति के रूप में संबोधन किया था। उनका यही भाषण प्रगतिशील आंदोलन के घोषणा पत्र का आधार बना।[१८] प्रेमचंद ने हिन्दी में कहानी की एक परंपरा को जन्म दिया और एक पूरी पीढ़ी उनके कदमों पर आगे बढ़ी, ५०-६० के दशक में रेणु, नागार्जुन औऱ इनके बाद श्रीनाथ सिंह ने ग्रामीण परिवेश की कहानियाँ लिखी हैं, वो एक तरह से प्रेमचंद की परंपरा के तारतम्य में आती हैं।[१९] प्रेमचंद एक क्रांतिकारी रचनाकार थे, उन्होंने न केवल देशभक्ति बल्कि समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों को देखा और उनको कहानी के माध्यम से पहली बार लोगों के समक्ष रखा। उन्होंने उस समय के समाज की जो भी समस्याएँ थीं उन सभी को चित्रित करने की शुरुआत कर दी थी। उसमें दलित भी आते हैं, नारी भी आती हैं। ये सभी विषय आगे चलकर हिन्दी साहित्य के बड़े विमर्श बने।[२०] प्रेमचंद हिन्दी सिनेमा के सबसे अधिक लोकप्रिय साहित्यकारों में से हैं। सत्यजित राय ने उनकी दो कहानियों पर यादगार फ़िल्में बनाईं। १९७७ में शतरंज के खिलाड़ी और १९८१ में सद्गति। उनके देहांत के दो वर्षों बाद के सुब्रमण्यम ने १९३८ में सेवासदन उपन्यास पर फ़िल्म बनाई जिसमें सुब्बालक्ष्मी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। १९७७ में मृणाल सेन ने प्रेमचंद की कहानी कफ़न पर आधारित ओका ऊरी कथा[२१] नाम से एक तेलुगू फ़िल्म बनाई जिसको सर्वश्रेष्ठ तेलुगू फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। १९६३ में गोदान और १९६६ में गबन उपन्यास पर लोकप्रिय फ़िल्में बनीं। १९८० में उनके उपन्यास पर बना टीवी धारावाहिक निर्मला भी बहुत लोकप्रिय हुआ था।[२२]
पुरस्कार व सम्मान

                                                                                                                                                                                        
प्रेमचंद पर जारी डाकटिकट
संस्थान में भित्तिलेख

प्रेमचंद की स्मृति में भारतीय डाकतार विभाग की ओर से ३१ जुलाई १९८० को उनकी जन्मशती के अवसर पर ३० पैसे मूल्य का एक डाक टिकट जारी किया गया।[२३] गोरखपुर के जिस स्कूल में वे शिक्षक थे, वहाँ प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना की गई है। इसके बरामदे में एक भित्तिलेख है जिसका चित्र दाहिनी ओर दिया गया है। यहाँ उनसे संबंधित वस्तुओं का एक संग्रहालय भी है। जहाँ उनकी एक वक्षप्रतिमा भी है।[२४] प्रेमचंद की १२५वीं सालगिरह पर सरकार की ओर से घोषणा की गई कि वाराणसी से लगे इस गाँव में प्रेमचंद के नाम पर एक स्मारक तथा शोध एवं अध्ययन संस्थान बनाया जाएगा।[२५] प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी ने प्रेमचंद घर में नाम से उनकी जीवनी लिखी और उनके व्यक्तित्व के उस हिस्से को उजागर किया है, जिससे लोग अनभिज्ञ थे। यह पुस्तक १९४४ में पहली बार प्रकाशित हुई थी, लेकिन साहित्य के क्षेत्र में इसके महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसे दुबारा २००५ में संशोधित करके प्रकाशित की गई, इस काम को उनके ही नाती प्रबोध कुमार ने अंजाम दिया। इसका अँग्रेज़ी[२६] व हसन मंज़र का किया हुआ उर्दू[२७] अनुवाद भी प्रकाशित हुआ। उनके ही बेटे अमृत राय ने कलम का सिपाही नाम से पिता की जीवनी लिखी है। उनकी सभी पुस्तकों के अंग्रेज़ी व उर्दू रूपांतर तो हुए ही हैं, चीनी, रूसी आदि अनेक विदेशी भाषाओं में उनकी कहानियाँ लोकप्रिय हुई हैं।
कहानियाँ :1. अन्धेर 2. अनाथ लड़की 3. अपनी करनी 4. अमृत 5. अलग्योझा 6. आख़िरी तोहफ़ा  7. आखिरी मंजिल 8. आत्म-संगीत  9. आत्माराम 10. आधार 11. आल्हा 12. इज्जत का खून 13. इस्तीफा
14. ईदगाह 15. ईश्वरीय न्याय  16. उद्धार 17. एक ऑंच की कसर  18. एक्ट्रेस 19. कप्तान साहब  20. कफ़न  21. कर्मों का फल  22. क्रिकेट मैच  23. कवच  24. क़ातिल25. कुत्सा 26. कुसु  27. कोई दुख न हो तो बकरी.. 28. कौशल़ 29. खुदी 30. खून सफेद 31. ग़रीब की हाय 32. गैरत की कटार 33. गुल्‍ली डंडा 34. घमंड का पुतला  35. घर जमाई 36. घासवाली  37. ज्‍योति  38. ज्वालामुखी  39. जादू  40. जेल  41. जुलूस  42. झांकी  43. ठाकुर का कुआं 44. तेंतर  45. त्रिया-चरित्र  46. तांगेवाले की बड़  47. तिरसूल  48. दण्ड  49. दुर्गा का मन्दिर  50. देवी  51. देवी - एक लघु कथा  52. दूसरी शादी  53. दिल की रानी  54. दो बैलों की कथा  55. दो भाई  56. दो सखियाँ  57. धर्मसंकट  58. धिक्कार  59. धिक्कार - एक और कहानी  60. नमक का दारोगा  61. निमन्त्रण  62. नेउर  63. नेकी  64. नबी का नीति-निर्वाह  65. नरक का मार्ग  66. नैराश्य  67. नैराश्य लीला  68. नश  69. नसीहतों का दफ्तर  70. नाग-पूजा  71. नादान दोस्त  72. निर्वासन  73. पंच परमेश्वर  74. पत्नी से पति  75. पुत्र-प्रेम  76. पैपुजी  77. प्रतापचन्द और कमलाचरण  78. प्रतिशोध  79. प्रेम-सूत्र  80. प्रेरणा  81. प्रायश्चित  82. पर्वत-यात्रा  83. परीक्षा  84. पूस की रात
  85. बलिदान  86. बैंक का दिवाला  87. बेटोंवाली विधवा  88. बड़े घर की बेटी  89. बड़े बाबू  90. बड़े भाई साहब 91. बन्द दरवाजा 92. बाँका जमींदार 93. बूढ़ी काकी 94. बेटी का धन  95. बोध  96. बोहनी 97. मन्दिर  98. महातीर्थ  99. मैकू 100. मोटर के छींटे 101. मंत्र 102. मंदिर और मस्जिद 103. मनावन 104. मुबारक बीमारी 105. ममता 106. माँ 107. माता का ह्रदय 108. मिलाप 109. मिस पद्मा 110. मुफ्त का यश 111. मोटेराम जी शास्त्री 112. र्स्वग की देवी 113. यह मेरी मातृभूमि है 114. राजहठ115. राष्ट्र का सेवक 116. लैला 117. वरदान 118. वफ़ा का ख़जर 119. वासना की कड़ियॉँ 120. विजय 121. विश्वास 122. विषम समस्या 123. वैराग्य 124. शतरंज के खिलाड़ी 125. शंखनाद 126. शूद्रा 127. शराब की दुकान 128. शांति 129. शादी की वजह 130. शान्ति 131. शिकारी राजकुमार 132. स्त्री और पुरूष 133. स्वर्ग की देवी 134. स्‍वामिनी 135. स्वांग 136. सच्चाई का उपहार 137. सभ्यता का रहस्य  138. समर यात्रा 139. सुभागी 140. सेवा मार्ग 141. सैलानी बंदर 142. सिर्फ एक आवाज 143. सोहाग का शव 144. सौत 145. होली की छुट्टी


                                       प्रेमचंद की हिन्दी कहानी

                                             दो बैलों की कथा

   

                                                                                                                                               


जानवरों में गधा सबसे ज्यादा बुध्दिहीन समझा जाता है। हम जब किसी आदमी को पल्ले दर्जे का बेवकूफ कहना चाहते हैं, तो उसे गधा कहते हैं। गधा सचमुच बेवकूफ है, या उसके सीधेपन, उसकी निरापद सहिष्णुता ने उसे यह पदवी दे दी है, इसका निश्चय नहीं किया जा सकता।

गायें सींग मारती हैं, ब्यायी हुई गाय तो अनायास ही सिंहनी का रूप धारण कर लेती है। कुत्ता भी बहुत गरीब जानवर है, लेकिन कभी-कभी उसे भी क्रोध आ ही जाता है। किन्तु गधे को कभी क्रोध करते नहीं सुना, न देखा। जितना चाहे गरीब को मारो, चाहे जैसी खराब, सडी हुई घास सामने डाल दो, उसके चेहरे पर कभी असंतोष की छाया भी न दिखाई देगी। वैशाख में चाहे एकाध बार कुलेल कर लेता हो, पर हमने तो उसे कभी खुश होते नहीं देखा।

उसके चेहरे पर एक स्थायी विषाद स्थायी रूप से छाया रहता है। सुख-दु:ख, हानि-लाभ, किसी भी दशा में उसे बदलते नहीं देखा। ॠषियों-मुनियों के जितने गुण हैं, वे सभी उसमें पराकाष्ठा को पहुँच गए हैं, पर आदमी उसे बेवकूफ कहता है। सद्गुणों का इतना अनादर कहीं न देखा। कादचित सीधापन संसार के लिए उपयुक्त नहीं है।

देखिए न, भारतवासियों की अफ्रीका में क्यों दुर्दशा हो रही है? क्यों अमेरिका में उन्हें घुसने नहीं दिया जाता? बेचारे शराब नहीं पीते, चार पैसे कुसमय के लिए बचाकर रखते हैं, जी तोडकर काम करते हैं, किसी से लडाई-झगडा नहीं करते, चार बातें सुनकर गम खा जाते हैं, फिर भी बदनाम हैं। कहा जाता है, वे जीवन के आदर्श को नीचा करते हैं। अगर वे भी ईंट का जवाब पत्थर से देना सीख जाते, तो शायद सभ्य कहलाने लगते। जापान की मिसाल समाने है। एक ही विजय ने उसे संसार की सभ्य जातियों में गण्य बना दिया। लेकिन गधे का एक छोटा भाई और भी है, जो उससे कम ही गधा है, और वह है 'बैल। जिस अर्थ में हम गधा का प्रयोग करते हैं, कुछ उसी से मिलते-जुलते अर्थ में 'बछिया के ताऊ का भी प्रयोग करते हैं। कुछ लोग बैल को शायद बेवकूफों में सर्वश्रेष्ठ कहेंगे, मगर हमारा विचार ऐसा नहीं है। बैल कभी-कभी मारता भी है, कभी-कभी अडियल बैल भी देखने में आता है। और भी कई रीतियों से अपना असंतोष प्रकट कर देता है, अतएव उसका स्थान गधे से नीचा है।

झूरी काछी के दोनों बैलों के नाम थे हीरा और मोती। दोनों पछाई जाति के थे- देखने में सुन्दर, काम में चौकस, डील में ऊँचे। बहुत दिनों से साथ रहते-रहते दोनों में भाईचारा हो गया था। दोनों आमने-सामने या आसपास बैठे हुए एक-दूसरे से मूक भाषा में विचार-विनिमय करते थे। एक दूसरे के मन की बात कैसे समझ जाता था, हम नहीं कह सकते। अवश्य ही उनमें कोई ऐसी गुप्त शक्ति थी, जिससे जीवों में श्रेष्ठता का दावा करने वाला मनुष्य वंचित है।

दोनों एक-दूसरे को चाटकर और सूँघकर अपना प्रेम प्रकट करते, कभी-कभी दोनों सींग भी मिला लिया करते थे- विग्रह के नाते से नहीं, केवल विनोद के भाव से, आत्मीयता के भाव से, जैसे दोस्तों में घनिष्ठता होते ही धौल-धप्पा होने लगता है। इसके बिना दोस्ती कुछ फुसफुसी, कुछ हल्की-सी रहती है, जिस पर ज्यादा विश्वास नहीं किया जा सकता।

जिस वक्त ये दोनों बैल हल या गाडी में जोत दिए जाते और गर्दन हिला-हिलाकर चलते उस वक्त हर एक की यही चेष्टा होती थी कि ज्याद-से-ज्यादा बोझ मेरी ही गर्दन पर रहे। दिनभर के बाद दोपहर या संध्या को दोनों खुलते, तो एक-दूसरे को चाट-चूटकर अपनी थकान मिटा लेते। नाँद में खली-भूसा पड जाने के बाद दोनों साथ उठते, साथ नाँद में मुँह डालते और साथ ही बैठते थे। एक मुँह हटा लेता तो दूसरा भी हटा लेता था।

संयोग की बात है, झूरी ने एक बार गोईं को ससुराल भेज दिया। बैलों को क्या मालूम वे क्यों भेजे जा रहे हैं। समझे, मालिक ने हमे बेच दिया। अपना यों बेचा जाना उन्हें अच्छा लगा या बुरा, कौन जाने पर झूरी के साले गया को घर तक गोईं ले जाने में दाँतों पसीना आ गया। पीछे से हाँकता तो दोनों दाएँ-बाएँ भागते, पगहिया पकडकर आगे से खींचता तो दोनों पीछे को जोर लगाते। मारता तो दोनों सींग नीचे करके हुँकरते।

अगर ईश्वर ने उन्हें वाणी दी होती, तो झूरी से पूछते- तुम हम गरीबों को क्यों निकाल रहे हो? हमने तो तुम्हारी सेवा करने में कोई कसर नहीं उठा रखी। अगर इतनी मेहनत से काम न चलता था, और काम ले लेते, हमें तो तुम्हारी चाकरी में मर जाना कबूल था। हमने कभी दाने-चारे की शिकायत नहीं की। तुमने जो कुछ खिलाया वह सिर झुकाकर खा लिया, फिर तुमने हमें इस जालिम के हाथों क्यों बेच दिया?

संध्या समय दोनों बैल अपने नए स्थान पर पहुँचे। दिनभर के भूखे थे, लेकिन जब नाँद में लगाए गए, तो एक ने भी उसमें मुँह न डाला। दिल भारी हो रहा था। जिसे उन्होंने अपना घर समझ रखा था, वह आज उनसे छूट गया था। यह नया घर, नया गाँव, नए आदमी, उन्हें बेगानों से लगते थे।

दोनों ने अपनी मूक भाषा में सलाह की, एक-दूसरे को कनखियों से देखा और लेट गए। जब गाँव में सोता पड गया, तो दोनों ने जोर मारकर पगहे तुडा डाले और घर की तरफ चले। पगहे बहुत मजबूत थे। अनुमान न हो सकता था कि कोई बैल उन्हें तोड सकेगा: पर इन दोनों में इस समय दूनी शक्ति आ गई थी। एक-एक झटके में रस्सियाँ टूट गईं।

झूरी प्रात: सोकर उठा, तो देखा कि दोनों बैल चरनी पर खडे हैं। दोनों ही गर्दनों में आधा-आधा गराँव लटक रहा है। घुटने तक पाँव कीचड से भरे हैं और दोनों की ऑंखों में विद्रोहमय स्नेह झलक रहा है।

झूरी बैलों को देखकर स्नेह से गद्गद् हो गया। दौडकर उन्हें गले लगा लिया। प्रेमालिंगन और चुम्बन का वह दृश्य बडा ही मनोहर था।

घर और गाँव के लडके जमा हो गए और तालियाँ बजा-बजाकर उनका स्वागत करने लगे। गाँव के इतिहास में यह घटना अभूतपूर्व न होने पर भी महत्वपूर्ण थी। बाल-सभा ने निश्चय किया, दोनों पशु-वीरों को अभिनंदन-पत्र देना चाहिए। कोई अपने घर से रोटियाँ लाया, कोई गुड, कोई चोकर, कोई भूसी।

एक बालक ने कहा- ऐसे बैल किसी के पास न होंगे।

दूसरे ने समर्थन किया- इतनी दूर से दोनों अकेले चले आए।

तीसरा बोला- बैल नहीं हैं वे, उस जनम के आदमी हैं।

इसका प्रतिवाद करने का किसी को साहस न हुआ।

झूरी की स्त्री ने बैलों को द्वार पर देखा, तो जल उठी। बोली- कैसे नमक-हराम बैल हैं कि एक दिन वहाँकाम न किया, भाग खडे हुए।

झूरी अपने बैलों पर यह आक्षेप न सुन सका- नमकहराम क्यों हैं? चारा-दाना न दिया होगा, तो क्या करते?

स्त्री ने रोब के साथ कहा- बस, तुम्हीं तो बैलों को खिलाना जानते हो, और तो सभी पानी पिला-पिलाकर रखते हैं।

झूरी ने चिढाया- चारा मिलता तो क्यों भागते?

स्त्री चिढी- भागे इसलिए कि वे लोग तुम जैसे बुध्दुओं की तरह बैलों को सहलाते नहीं। खिलाते हैं, तो रगडकर जोतते भी हैं। ये दोनों ठहरे कामचोर, भाग निकले। अब देखूँ? कहाँ से खली और चोकर मिलता है, सूखे भूसे के सिवा कुछ न दूँगी, खाएँ चाहे मरें।

वही हुआ। मजूर को बडी ताकीद कर दी गई कि बैलों को खाली सूखा भूसा दिया जाए।

बैलों ने नाँद में मुँह डाला तो फीका-फीका। न कोई चिकनाहट, न कोई रस। क्याखाएँ? आशा भरी ऑंखों से द्वार की ओर ताकने लगे।

झूरी ने मजूर से कहा- थोडी-सी खली क्यों नहीं डाल देता बे?

'मालिकन मुझे मार ही डालेंगी।

'चुराकर डाल आ।

'ना दादा, पीछे से तुम भी उन्हीं की-सी कहोगे।

दूसरे दिन झूरी का साला फिर आया और बैलों को ले चला। अबकी उसने दोनों को गाडी में जोता।

दो-चार बार मोती ने गाडी को सडक की खाई में गिराना चाहा, पर हीरा ने संभाल लिया। वह ज्यादा सहनशील था।

संध्या समय घर पहुँचकर उसने दोनों को मोटी रस्सियों से बाँधा और कल की शरारत का मजा चखाया। फिर वही सूखा भूसा डाल दिया। अपने दोनों बैलों को खली, चूनी सब कुछ दी।

दोनों बैलों का ऐसा अपमान कभी न हुआ था। झूरी इन्हें फूल की छडी से भी न छूता था। उसकी टिटकार पर दोनों उडने लगते थे। यहाँ मार पडी। आहत-सम्मान की व्यथा तो थी ही, उस पर मिला सूखा भूसा!

नाँद की तरफ ऑंखें तक न उठाईं।

दूसरे दिन गया ने बैलों को हल में जोता, पर इन दोनों ने जैसे पाँव न उठाने की कसम खा ली थी। वह मारते-मारते थक गया, पर दोनों ने पाँव न उठाया। एक बार जब उस निर्दयी ने हीरा की नाक पर खूब डण्डे जमाए, तो मोती का गुस्सा काबू के बाहर हो गया। हल लेकर भागा। हल, रस्सी, जुआ, जोत, सब टूट-टाट कर बराबर हो गया। गले में बडी-बडी रस्सियाँ न होती तो दोनों पकडाई में न आते।

हीरा ने मूक भाषा में कहा- भागना व्यर्थ है।

मोती ने उत्तर दिया- तुम्हारी तो इसने जान ही ले ली थी।

'अबकी बडी मार पडेगी।

'पडने दो, बैल का जन्म लिया है तो मार से कहाँ तक बचेंगे।

'गया दो आदमियों के साथ दौडा आ रहा है। दोनों के हाथों में लाठियाँ हैं।

मोती बोला- कहो तो दिखा दूँ कुछ मजा मैं भी। लाठी लेकर आ रहा है।

हीरा ने समझाया- नहीं भाई! खडे हो जाओ।

'मुझे मारेगा, तो मैं भी एक-दो को गिरा दूँगा।

'नहीं। हमारी जाति का यह धर्म नहीं है।

मोती दिल में ऐंठकर रह गया। गया आ पहुँचा और दोनों को पकडकर ले चला। कुशल हुई कि उसने इस वक्त मारपीट न की, नहीं तो मोती भी पलट पडता। उसके तेवर देखकर गया और उसके सहायक समझ गए कि इस वक्त टाल जाना ही मसलहत है।


आज दोनों के सामने फिर वही सूखा भूसा लाया गया। दोनों चुपचाप खडे रहे। घर के लोग भोजन करने लगे। उस वक्त छोटी-सी लडकी दो रोटियाँ लिए निकली, और दोनों के मुँह में देकर चली गई।

उस एक रोटी से इनकी भूख तो क्या शांत होती, पर दोनों के हृदय को मानो भोजन मिल गया। यहाँ भी किसी सज्जन का बास है। लडकी भैरो की थी। उसकी माँ मर चुकी थी। सौतेली माँ मारती रहती थी, इसलिए इन बैलों से उसे एक प्रकार की आत्मीयता हो गई थी।

दोनों दिनभर जोते जाते, डण्डे खाते, अडते। शाम को थान पर बाँध दिए जाते और रात को वही बालिका उन्हें दो रोटियाँ खिला जाती। प्रेम के इस प्रसाद की यह बरकत थी कि दो-दो गाल सूखा भूसा खाकर भी दोनों दुर्बल न होते थे, मगर दोनों की ऑंखों में, रोम-रोम में विद्रोह भरा हुआ था।

एक दिन मोती ने मूक भाषा में कहा- अब तो नहीं सहा जाता हीरा!

'क्या करना चाहते हो?

'एकाध को सीगों पर उठाकर फेंक दूँगा।

'लेकिन जानते हो, वह प्यारी लडकी, जो हमें रोटियाँ खिलाती है, उसी की लडकी है, जो इस घर का मालिक है। यह बेचारी अनाथ न हो जाएगी?

'तो मालकिन को न फेंक दूँ। वही तो उस लडकी को मारती है।

'लेकिन औरत जात पर सींग चलाना मना है, यह भूले जाते हो।

'तुम तो किसी तरह निकलने ही नहीं देते। बताओ, तुडाकर भाग चलें।

'हाँ, यह मैं स्वीकार करता, लेकिन इतनी मोटी रस्सी टूटेगी कैसे?

'इसका उपाय है। पहले रस्सी को थोडा-सा चबा लो। फिर एक झटके में जाती है।

रात को जब बालिका रोटियाँ खिलाकर चली गई, दोनों रस्सियाँ चबाने लगे, पर मोटी रस्सी मुँह में न आती थी। बेचारे बार-बार जोर लगाकर रह जाते थे।

सहसा घर का द्वार खुला और वही बालिका निकली। दोनों सिर झुकाकर उसका हाथ चाटने लगे। दोनों की पूँछें खडी हो गईं।

उसने उनके माथे सहलाए और बोली- खोले देती हूँ। चुपके से भाग जाओ, नहीं तो यहाँ लोग मार डालेंगे। आज घर में सलाह हो रही है कि इनकी नाकों में नाथ डाल दी जाएँ।

उसने गराँव खोल दिया, पर दोनों चुपचाप खडे रहे।

मोती ने अपनी भाषा में पूछा- अब चलते क्यों नहीं?

हीरा ने कहा- चलें तो लेकिन कल इस अनाथ पर आफत आएगी। सब इसी पर संदेह करेंगे।

सहसा बालिका चिल्लाई- दोनों फूफा वाले बैल भागे जा रहे हैं। ओ दादा! दोनों बैल भागे जा रहे हैं, जल्दी दौडो।

गया हडबडाकर भीतर से निकला और बैलों को पकडने चला। वे दोनों भागे। गया ने पीछा किया। और भी तेज हुए। गया ने शोर मचाया। फिर गाँव के कुछ आदमियों को भी साथ लेने के लिए लौटा। दोनों मित्रों को भागने का मौका मिल गया। सीधे दौडते चले गए। यहाँ तक कि मार्ग का ज्ञान न रहा। जिस परिचित मार्ग से आए थे, उसका यहाँ पता न था। नए-नए गाँव मिलने लगे। तब दोनों एक खेत के किनारे खडे होकर सोचने लगे, अब क्या करना चाहिए?

हीरा ने कहा- मालूम होता है, राह भूल गए।

'तुम भी बेतहाशा भागे। वहीं उसे मार गिराना था।

'उसे मार गिराते, तो दुनिया क्या कहती? वह अपना धर्म छोड दे, लेकिन हम अपना धर्म क्यों छोडें?


दोनों भूख से व्याकुल हो रहे थे। खेत में मटर खडी थी। चरने लगे। रह-रहकर आहट ले लेते थे, कोई आता तो नहीं है।

जब पेट भर गया, दोनों ने आजादी का अनुभव किया, तो मस्त होकर उछलने-कूदने लगे। पहले दोनों ने डकार ली। फिर सींग मिलाए और एक-दूसरे को ठेलने लगे। मोती ने हीरा को कई कदम हटा दिया, यहाँ तक कि वह खाई में गिर गया। तब उसे भी क्रोध अया। सँभलकर उठा और फिर मोती से भिड गया।मोती ने देखा- खेल में झगडा हुआ चाहता है, तो किनारे हट गया।

अरे! यह क्या? कोई साँड डौकता चला आ रहा है। हाँ, साँड ही है। वह सामने आ पहुँचा। दोनों मित्र बगलें झाँक रहे हैं। साँड पूरा हाथी है। उससे भिडना जान से हाथ धोना है, लेकिन न भिडने पर भी जान बचती नहीं नजर आती। इन्हीं की तरफ आ भी रहा है। कितनी भयंकर सूरत है।

मोती ने मूक भाषा में कहा- बुरे फँसे। जान बचेगी? कोई उपाय सोचो।

हीरा ने चिन्तित स्वर में कहा- अपने घमण्ड से फूला हुआ है। आरजू-विनती न सुनेगा।

'भाग क्यों न चलें?

'भागना कायरता है।

'तो फिर यहीं मरो। बंदा तो नौ-दो- ग्यारह होता है।

'और जो दौडाए?

'तो फिर कोई उपाय सोचो, जल्द!

'उपाय यही है कि उस पर दोनों जनें एक साथ चोट करें? मैं आगे से रगेदता हूँ, तुम पीछे से रगेदो, दोहरी मार पडेगी, तो भाग खडा होगा। मेरी ओर झपटे, तुम बगल से उसके पेट में सींग घुसेड देना। जान जोखिम है, पर दूसरा उपाय नहीं है।

दोनों मित्र जान हथेलियों पर लेकर लपके। साँड को भी संगठित शत्रुओं से लडने का तजरबा न था। वह तो एक शत्रु से मल्लयुध्द करने का आदी था। ज्यों ही हीरा पर झपटा, मोती ने पीछे से दौडाया। साँड उसकी तरफ मुडा, तो हीरा ने रगेदा। साँड चाहता था कि एक-एक करके दोनों को गिरा ले, पर ये दोनों भी उस्ताद थे। उसे वह अवसर न देते थे।

एक बार साँड झल्लाकर हीरा का अन्त कर देने के लिए चला कि मोती ने बगल से आकर पेट में सींग भोंक दी। साँड क्रोध में आकर पीछे फिरा तो हीरा ने दूसरे पहलू में सींग भोंक दिया। आखिर बेचारा जख्मी होकर भागा और दोनों मित्रों ने दूर तक उसका पीछा किया। यहाँ तक कि साँड बेदम होकर गिर पडा। तब दोनों ने उसे छोड दिया। दोनों मित्र विजय के नशे में झूमते चले जाते थे।

मोती ने अपनी सांकेतिक भाषा में कहा- मेरा तो जी चाहता था कि बच्चा को मार ही डालूँ।

हीरा ने तिरस्कार किया- गिरे हुए बैरी पर सींग न चलाना चाहिए।

'यह सब ढोंग है। बैरी को ऐसा मारना चाहिए कि फिर न उठे।

'अब घर कैसे पहुँचेंगे, वह सोचो।

'पहले कुछ खा लें, तो सोचें।

सामने मटर का खेत था ही। मोती उसमें घुस गया। हीरा मान करता रहा, पर उसने एक न सुनी। अभी दो चार ग्रास खाए थे कि दो आदमी लाठियाँ लिए दौड पडे और दोनों मित्रों को घेर लिया। हीरा तो मेड पर था, निकल गया। मोती सींचे हुए खेत में था। उसके खुर कीचड में धँसने लगे। न भाग सका। पकड लिया। हीरा ने देखा, संगी संकट में है, तो लौट पडा। फँसेंगे तो दोनों फँसेगे। रखवालों ने उसे भी पकड लिया। प्रात:काल दोनों मित्र काँजीहौस में बन्द कर दिए गए।

दोनों मित्रों को जीवन में पहली बार ऐसा साबिका पडा की सारा दिन बीत गया और खाने को एक तिनका भी न मिला। समझ ही में न आता था, यह कैसा स्वामी है? इससे तो गया फिर भी अच्छा था। यहाँ कई भैसे थीं, कई बकरियाँ, कई घोडे, कई गधे, पर किसी के सामने चारा न था, सब जमीन पर मुर्दों की तरह पडे थे।
कई तो इतने कमजोर हो गए थे कि खडे भी नहीं हो सकते थे। सारा दिन दोनों मित्र फाटक की ओर टकटकी लगाए ताकते रहे, पर कोई चारा लेकर आता न दिखाई दिया। तब दोनों ने दीवार की नमकीन मिट्टी चाटनी शुरू की, पर इससे क्या तृप्ति होती?
रात को भी जब कुछ भोजन न मिला, तो हीरा के दिल में विद्रोह की ज्वाला दहक उठी।
मोती से बोला- अब तो नहीं रहा जाता मोती!
मोती ने सिर लटकाए हुए जवाब दिया- मुझे तो मालूम होता है प्राण निकल रहे हैं।
'इतनी जल्द हिम्मत न हारो भाई! यहाँ से भागने का कोई उपाय निकालना चाहिए।
'आओ दीवार तोड डालें।
'मुझसे तो अब कुछ नहीं होगा।
'बस इसी बूते पर अकडते थे?
'सारी अकड निकल गई।
बाडे की दीवार कच्ची थी। हीरा मजबूत तो था ही, अपने नुकीले सींग दीवार में गडा दिए और जोर मारा, तो मिट्टी का एक चिप्पड निकल आया। फिर तो उसका साहस बढा। इसने दौड-दौडकर दीवार पर चोटें की और हर चोट में थोडी-थोडी मिट्टी गिराने लगा।
उसी समय काँजीहौंस का चौकीदार लालटेन लेकर जानवरों की हाजिरी लेने निकला। हीरा का उजापन देखकर उसने उसे कई डण्डे रसीद किए और मोटी-सी रस्सी से बाँध दिया।
मोती ने पडे-पडे कहा- आखिर मार खाई, क्या मिला?
'अपने बूते-भर जोर तो मार दिया।
'ऐसा जोर मारना किस काम का कि और बन्धन में पड गए।
'जोर तो मारता ही जाऊँगा, चाहे कितने ही बन्धन पडते जाएँ।
'जान से हाथ धोना पडेगा।
'कुछ परवाह नहीं। यों भी मरना ही है। सोचो, दीवार खुद जाती तो कितनी जानें बच जातीं। इतने भाई यहाँ बन्द हैं। किसी के देह में जान नहीं है। दो-चार दिन और यही हाल रहा, तो सब मर जाएँगे।
'हाँ, यह बात तो है। अच्छा, तो ला, फिर मैं भी जोर लगाता हूँ।
मोती ने भी दीवार में उसी जगह सींग मारा। थोडी-सी मिट्टी गिरी तो हिम्मत और बढी। फिर तो वह दीवार में सींग लगाकर इस तरह जोर करने लगा, मानो किसी प्रतिद्वन्द्वी से लड रहा है। आखिर कोई दो घण्टे की जोर-आजमाई के बाद दीवार ऊपर से लगभग एक हाथ गिर गई। उसने दूनी शक्ति से दूसरा धक्का मारा, तो आधी दीवार गिर पडी।
दीवार का गिरना था कि अधमरे-से पडे हुए सभी जानवर चेत उठे। तीनों घोडियाँ सरपट भाग निकलीं। फिर बकरियाँ निकलीं। इसके बाद भैसें भी खिसक गईं, पर गधे अभी तक ज्यों-के-त्यों खडे थे।
हीरा ने पूछा- तुम दोनों क्यों नहीं भाग जाते?
एक गधे ने कहा- जो कहीं फिर पकड लिए जाएँ?
'तो क्या हरज है। अभी तो भागने का अवसर है।
'हमें तो डर लगता है। हम यहीं पडे रहेंगे।
आधी रात से ऊपर जा चुकी थी। दोनों गधे अभी तक खडे सोच रहे थे कि भागें या न भागें। मोती अपने मित्र की रस्सी तोडने में लगा हुआ था। जब वह हार गया, तो हीरा ने कहा- तुम जाओ, मुझे यहीं पडा रहने दो। शायद कहीं भेंट हो जाए।
मोती ने ऑंखों में ऑंसू लाकर कहा- तुम मुझे इतना स्वार्थी समझते हो, हीरा? हम और तुम इतने दिनों एक साथ रहे हैं। आज तुम विपत्ति में पड गए, तो मैं तुम्हें छोडकर अलग हो जाऊँ।
हीरा ने कहा- बहुत मार पडेगी। लोग समझ जाएँगे, यह तुम्हारी शरारत है।
मोती गर्व से बोला- जिस अपराध के लिए तुम्हारे गले में बंधन पडा, उसके लिए अगर मुझ पर मार पडे, तो क्या चिन्ता! इतना तो हो ही गया कि नौ-दस प्राणियों की जान बच गई। वे सब तो आर्शीवाद देंगे ।
यह कहते हुए मोती ने दोनों गधों को सीगों से मार-मारकर बाडे के बाहर निकाला और तब अपने बन्धु के पास आकर सो रहा।
भोर होते ही मुंशी और चौकीदार तथा अन्य कर्मचारियों में कैसी खलबली मची, इसके लिखने की जरूरत नहीं। बस, इतना ही काफी है कि मोती की खूब मरम्मत हुई और उसे भी मोटी रस्सी से बाँध दिया।

एक सप्ताह तक दोनों मित्र बँधे पडे रहे। किसी ने चारे का एक तृण भी न डाला। हाँ, एक बार पानी दिखा दिया जाता था। यही उनका आधार था। दोनों इतने दुर्बल हो गए थे कि उठा तक न जाता, ठठरियाँ निकल आई थीं।

एक दिन बाडे के सामने डुग्गी बजने लगी और दोपहर होते-होते वहाँ पचास-साठ आदमी जमा हो गए। तब दोनों मित्र निकाले गए और उनकी देख-भाल होने लगी। लोग आ-आकर उनकी सूरत देखते और मन फीका करके चले जाते। ऐसे मृतक बैलों का कौन खरीददार होता?

सहसा एक दढियल आदमी, जिसकी ऑंखें लाल थीं और मुद्रा अत्यन्त कठोर, आया और दोनों मित्रों के कूल्हों में उँगली गोदकर मुंशीजी से बातें करने लगा। उसका चेहरा देखकर अन्तज्र्ञान से दोनों मित्रों के दिल काँप उठे। वह कौन है और उन्हें क्यों टटोल रहा है, इस विषय में उन्हें कोई संदेह न हुआ। दोनों ने एक दूसरे को भीत नेत्रों से देखा और सिर झुका लिया।

हीरा ने कहा- गया के घर से नाहक भागे। अब जान न बचेगी। मोती ने अश्रध्दा के भाव से उत्तर दिया-कहते हैं, भगवान सबके ऊपर दया करते हैं। उन्हें हमारे ऊपर क्यों दया नहीं आती?

भगवान के लिए हमारा मरना-जीना दोनों बराबर है। चलो, अच्छा ही है, कुछ दिन उसके पास तो रहेंगे। एक बार भगवान ने उस लडकी के रूप में हमें बचाया था। क्या अब न बचाएँगे?

'यह आदमी छुरी चलाएगा। देख लेना।

'तो क्या चिन्ता है? माँस, खाल, सींग, हड्डी सब किसी-न-किसी काम आ जाएगी।

नीलाम हो जाने के बाद दोनों मित्र उस दढियल के साथ चले। दोनों की बोटी-बोटी काँप रही थी। बेचारे पाँव तक न उठा सकते थे, पर भय के मारे गिरते-पडते भागे जाते थे, क्योंकि वह जरा भी चाल धीमी हो जाने पर जोर से डण्डा जमा देता था।

राह में गाय-बैलों का रेवड हरे-हरे हार में चरता नजर आया। सभी जानवर प्रसन्न थे, चिकने, चपल, कोई उछलता था, कोई आनन्द से बैठा पागुर करता था। कितना सुखी जीवन था इनका, पर कितने स्वार्थी हैं सब। किसी को चिन्ता नहीं कि उनके दो भाई बधिक के हाथ पडे कैसे दु:खी हैं।

सहसा दोनों को ऐसा मालूम हुआ कि यह परिचित राह है। हाँ, इसी रास्ते से गया उन्हें ले गया था। वही खेत, वही बाग, वही गाँव मिलने लगे। प्रतिक्षण उनकी चाल तेज होने लगी। सारी थकान, सारी दुर्बलता गायब हो गई। आह! यह लो! अपना ही हार आ गया। इसी कुएँ पर हम पुर चलाने आया करते थे, यही कुऑं है।

मोती ने कहा-हमारा घर नगीच आ गया।

हीरा बोला- भगवान की दया है।

'मैं तो अब घर भागता हूँ।

'यह जाने देगा?

'इसे मार गिरता हूँ।

'नहीं-नहीं, दौडकर थान पर चलो। वहाँ से हम आगे न जाएँगे।

दोनों उन्मत होकर बछडों की भाँति कुलेलें करते हुए घर की ओर दौडे। वह हमारा थान है। दोनों दौडकर अपने थान पर आए और खडे हो गए। दढियल भी पीछे-पीछे दौडा चला आता था।

झूरी द्वार पर बैठा धूप खा रहा था। बैलों को देखते ही दौडा और उन्हें बारी-बारी से गले लगाने लगा। मित्रों की ऑंखों में आनन्द के ऑंसू बहने लगे। एक झूरी का हाथ चाट रहा था।

दढियल ने जाकर बैलों की रस्सियाँ पकड लीं।

झूरी ने कहा- मेरे बैल हैं।

'तुम्हारे बैल कैसे? मैं मवेशीखाने से नीलाम लिए आता हूँ।

'मैं तो समझता हूँ चुराए लिए आते हो! चुपके से चले जाओ। मेरे बैल हैं। मैं बेचूँगा, तो बिकेंगे। किसी को मेरे बैल नीलाम करने का क्या अख्तियार है?

'जाकर थाने में रपट कर दूँगा।

'मेरे बैल हैं। इसका सबूत यह है कि मेरे द्वार पर खडे है।

दढियल झल्लाकर बैलों को जबरदस्ती पकड ले जाने के लिए बढा। उसी वक्त मोती ने सींग चलाया। दढियल पीछे हटा। मोती ने पीछा किया। दढियल भागा।

मोती पीछे दौडा। गाँव के बाहर निकल जाने पर वह रुका, पर खडा दढियल का रास्ता देख रहा था। दढियल दूर खडा धमकियाँ दे रहा था, गालियाँ निकाल रहा था, पत्थर फेंक रहा था। और मोती विजयी शूर की भाँति उसका रास्ता रोके खडा था। गाँव के लोग यह तमाशा देखते थे और हँसते थे। जब दढियल हारकर चला गया, तो मोती अकडता हुआ लौटा।

हीरा ने कहा- मैं डर रहा था कि कहीं तुम गुस्से में आकर मार न बैठो।

'अगर वह मुझे पकडता, तो मैं बे-मारे न छोडता।

'अब न आएगा।

'आएगा तो दूर ही से खबर लूँगा। देखूँ, कैसे ले जाता है।

'जो गोली मरवा दे?

'मर जाऊँगा, पर उसके काम तो न आऊँगा।

'हमारी जान को कोई जान नहीं समझता।

'इसलिए कि हम इतने सीधे हैं।

जरा देर में नाँदों में खली, भूसा, चोकर और दाना भर दिया गया और दोनों मित्र खाने लगे। झूरी खडा दोनों को सहला रहा था और बीसों लडके तमाशा देख रहे थे। सारे गाँव में उछाह-सा मालूम होता था।

उसी समय मालकिन ने आकर दोनों के माथे चूम लिए।



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